Friday, August 8, 2008

एक पदक की दरकार

बीजिंग ओलंपिक में भारत इस बार भी उम्मीदों के सहारे ओलंपिक महा संग्राम में उतर रहा है। मुक्केबाजों, एथलीटों, पहलवानों, तीरंदाजों और तैराकों पर खास नजरें टिकी हुयी हैं। हमारी तैयारी ओलंपिक को लक्ष्य मानकर नहीं की जाती है। हाकी हमारे लिए ओलंपिक में अब गए इतिहास की बात हो चुकी है। इतने बड़े देश से महज एक पदक की उम्मीद, फिर भी भारतीय खिलाडि़यों को सलाम व शुभकामनाएं। एक अरब की आबादी वाले देश में खिलाडि़यों से सिर्फ एक कांस्य पदक की उम्मीद लगाना, बड़ा अटपटा लगता है। जबकि सत्तर के दशक में मेरे देश की हाकी एक शान हुआ करती थी, ओलंपिक में तो एक स्वर्ण पदक पहले से ही मान लिया जाता था। और होता भी था। आज हाकी सिर्फ नाम की रह गयी है। जबकि भारतीय हाकी का विश्व में डंका पिटा करता था। ध्यानचंद्र, केडी बाबू सिंह जैसे खिलाडि़यों ने हाकी को जो ताकत दी थी आज उनकी गैर-मौजूदगी में हाकी की छड़ी कमजोर पड़ चुकी है। पेनाल्टी को गोल में तब्दील करने में भारत आज ढ़ीला पड़ चुका है। दरअसल, खेल में राजनीति आड़े आ रही है। खिलाडि़यों का चुनाव राजनीति के चश्में से होता है, न कि उनके प्रदर्शन के आधार पर। ग्रामीण क्षेत्र में खिलाडि़यों की भर मार है, लेकिन उनकी तरफ सरकार का ध्यान नहीं जाता है। यदि हमें खेल क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान को फिर से बनाना है, तो सबसे पहले खिलाडि़यों के चुनाव में निष्पक्ष भावना अपनानी होगी, खेल स्तर को सुधारना होगा।

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