Monday, October 12, 2009

क्या कांग्रेस परंपरा को तोड़ पाने में कामयाब होगी

हरियाणा में कल चुनाव होना है और सत्तारूढ़ कांग्रेस सत्ता बरकरार रखने के लिए सभी प्रयास कर रही है, साथ ही वह तीन दशक पुरानी उस परंपरा को तोड़ने की कोशिश में है जिसके अनुसार कोई भी सत्तारूढ़ सरकार सत्ता में वापस आने में सफल नहीं रही है। सभी 90 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही कांग्रेस ने राज्य में पहले तीनों विधानसभा चुनाव 1967, 1968 और 1972 में जीत हासिल की थी। पार्टी ने इस बार अपनी सत्ता को बरकरार रखने का लक्ष्य तय किया है जबकि 1977 के बाद कोई भी पार्टी दोबारा सत्ता में नहीं आई। भूपिंदर सिंह हुड्डा सरकार ने सात महीने पहले ही विधानसभा चुनाव कराने का फैसला किया ताकि मई में लोकसभा चुनाव की लोकप्रियता को भुनाया जा सके। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को दस में से नौ सीटें मिली थीं। वर्ष 2005 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 67 सीटें जीतकर सत्तारूढ़ हुई थी जबकि इस वर्ष संसदीय चुनावों में पार्टी को 59 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल हुई। विपक्षी पार्टियों भाजपा और आईएनएलडी के बीच अलगाव और हरियाणा जनहित कांग्रेस एवं बसपा के अकेले चुनाव लड़ने के बाद कांग्रेस खेमे को सभी सीटों पर बहुकोणीय मुकाबले के बीच जीत की उम्मीद है। चुनाव में ओमप्रकाश चौटाला के नेतृत्व वाले आईएनएलडी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है जिसे 2005 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ नौ सीटें मिली थीं और लोकसभा चुनाव में उसका खाता भी नहीं खुला।पांच बार मुख्यमंत्री रह चुके चौटाला सिरसा के इलेनाबाद और जींद के उचाना कलां से विधान सभा चुनाव लड़ रहे हैं। भंग विधानसभा में सिर्फ एक विधायक वाली भाजपा अपनी संख्या बढ़ाने की कोशिश में है और राज्य में अगली सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की उम्मीद में है। पिछले विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक विधायक वाली बसपा कुछ इलाकों में कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश में है। लेकिन इतना तय है कि विपक्ष के बिखराव का लाभ कांग्रेस को अवश्य मिलेगा। वर्तमान सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से भी अलग रही, जैसा कि चौटाला सरकार पर लगे थे। विकास के क्षेत्र में काम भी हुए हैं जिसका लाभ कांग्रेस को मिलेगा। अब मतदाताओं की सोच में भी बदलाव आ गया है। मतदाता सिर्फ विकास को ही मोहरा बनाकर चलते हैं। जैसा कि लोक सभा चुनाव में देखने को मिला था। धनबलों और बाहुबलों को चारों खाने चित कर दिए थे। इसलिए हो सकता है कि कांग्रेस तीस वर्ष पुरानी परंपरा को तोड़ने में कामयाब हो जाए और सत्तारूढ़ बनी रहे।

Friday, October 9, 2009

ओबामा को नोबेल पुरस्कार चौंका देने वाला


वर्ष 2009 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुने गए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को यह प्रतिष्ठित सम्मान हासिल करने में टकराव दूर करने और ईरान तथा उत्तर कोरिया जैसी 'बुराई की धुरी' के साथ कूटनीति अपनाने की उनकी रणनीति, मुस्लिम जगत की ओर उनके हाथ बढ़ाने तथा परमाणु शस्त्रों से मुक्त विश्व के उनके उद्देश्य के जरिए मदद मिली होगी। इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए ओबामा के चुने जाने की खबर अमेरिकियों के साथ ही शेष विश्व के लोगों के लिए भी चौंका देने वाली रही क्योंकि उनका नाम न तो संभावितों की सूची में कहीं था और न ही नोबेल शांति पुरस्कार के दावेदारों में उनके बारे में कोई अटकल थी। ओबामा ने बतौर राष्ट्राध्यक्ष एक वर्ष से कम समय बिताया है। माना जा रहा है कि विश्व का यह सबसे प्रतिष्ठित शांति पुरस्कार उन्हें काफी जल्द मिला है। गत 20 जनवरी को पदभार ग्रहण करने के बाद ओबामा अमेरिका के पहले अश्वेत अमेरिकी राष्ट्रपति बन गए थे। उन्होंने अमेरिका के दो युद्ध लड़ने के तरीकों की आलोचना और मुस्लिम जगत में उसकी जवाबी प्रतिक्रिया के बाद देश का रुतबा बहाल करने के लिए निरंतर कोशिशें की हैं।ओबामा के पूर्ववर्ती अधिकारी जार्ज डब्ल्यू बुश ने ईरान, इराक और उत्तर कोरिया को 'बुराई की धुरी' करार दिया था और उन पर आतंकवाद की मदद करने और जनसंहार के हथियार की तलाश में रहने का आरोप लगाया था। मध्य पूर्व के लिए विशेष दूत की नियुक्ति के बाद ओबामा इस्राइल और फिलस्तीनी नेताओं को एक मंच पर लेकर आए ताकि क्षेत्र में टिकाउू शांति लाई जा सके। कीनियाई मूल के पिता और श्वेत मां के पुत्र 44 वर्षीय ओबामा ने ईरान और यहां तक कि म्यांमार जैसे देशों के साथ भी बातचीत के दरवाजे खोले जिन पर बीते कई वर्षो से आर्थिक प्रतिबंध लागू हैं। उनकी वैश्विक कूटनीति का मुख्य केंद्र मुस्लिम जगत की ओर हाथ बढ़ाना रहा जो अफगानिस्तान और इराक में युद्ध के चलते लंबे समय से अमेरिका को अपना दुश्मन मानता है। उन्होंने गत जून काहिरा यात्रा की जहां उन्होंने मुस्लिम जगत के साथ संबंधों पर प्रमुख भाषण किया। हालिया संपन्न संयुक्त राष्ट्र महासभा में ओबामा ने विश्व से परमाणु शस्त्रों की कटौती के लिए भी पहल की। यह कहना जल्दबाजी होगी कि ओबामा अपनी कोशिशों में कितने सफल हुए हैं लेकिन नोबेल समिति ने कहा कि वह चाहती है कि ओबामा अपनी कूटनीतिक कोशिशों को विस्तार दें।

Thursday, October 8, 2009

हुड्डा का फैसला दांव पर

हरियाणा विधानसभा चुनाव के मतदान की तारीखें नजदीक आने के साथ ही मुख्यमंत्री भूपेंद सिंह हुड्डा के माथे पर चिंता की लकीरें पड़ने लगी हैं। समयपूर्व चुनाव करवाने का हुड्डा का फैसला दांव पर लगा है। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 90 में से 67 सीटें जीती थीं। हालांकि कांग्रेस इस बार भी सबसे आगे है और उसे बहुमत मिलने की संभावनाएं बताई जा रही हैं। मगर हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में 10 में से 9 सीटें जीतने वाली कांग्रेस के लिए पिछले विधानसभा की सफलता दोहराना मुश्किल लग रहा है। लोकसभा चुनाव के बाद हुड्डा ने कांग्रेस हाईकमान को राज्य में छह माह पूर्व विधानसभा चुनाव करवाने पर राजी कर लिया था। लेकिन कांग्रेस के बागी उम्मीदवारों, महंगाई और इंडियन नैशनल लोकदल के चीफ ओमप्रकाश चौटाला के परिवार से लोगों की नाराजगी कम होने से कांग्रेस की संभावनाओं पर विपरीत असर दिखने लगा है। गोहाना मुख्यमंत्री हुड्डा का घर है। बुधवार को यहां हुड्डा ने एक बड़ी सभा की। हुड्डा ने खासतौर से कांग्रेस के बागी उम्मीदवारों से जनता को होशियार किया। सोनीपत , रोहतक और झज्जर के इस जाट बहुल इलाके के नतीजे ही तय करेंगे कि हुड्डा पिछले साढ़े चार साल में जाट लैंड में कितने बड़े जाट नेता बन पाए हैं। एआईसीसी (ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी) ने गोहाना में प्रमुख जाट नेता डॉ. नरेश कुमार को ऑब्जर्वर बना कर भेज रखा है। कांग्रेस के बागी उम्मीदवार किताब सिंह मलिक इस इलाके में कांग्रेस के लिए मुसीबत बने हुए हैं। हालांकि नरेश कुमार मलिक को ज्यादा अहमियत देने से बचने की कोशिश करते हैं, मगर उनका लगातार वहीं डेरा डालने रखना बताता है कि कांग्रेस को स्थिति की गंभीरता का अंदाजा है। हरियाणा में तीनों लालों, बंसी लाल, देवी लाल और भजन लाल की राजनीति खत्म होने के बाद हुड्डा को वहां साढ़े चार साल काम करने का मौका मिला। पिछले विधानसभा चुनाव के बारे में हरियाणा में कहा जाता है कि लोगों ने कांग्रेस को जिताने के लिए नहीं बल्कि चौटाला को हराने के लिए वोट किया था। इस बार हुड्डा को अपने काम पर लोगों की मुहर लगवानी है। नरेश कुमार ने सभा में हुड्डा के काम को एक नया एंगल देते हुए कहा कि पिछले दिनों दिल्ली का विकास यूपी की दिशा में हो रहा था मगर हुड्डा ने वापस दिल्ली का मुंह हरियाणा की तरफ मोड़ दिया। विकास की धारा को कुंडली ( सोनीपत) की और खींच कर लाने के काम को जारी रखने के लिए उन्होंने कांग्रेस को वापस लाने की अपील की। विधानसभा का यह चुनाव चौटाला के लिए राजनीतिक जीवन-मरण का सवाल है। साथ ही जाट नेता कौन का भी यक्ष प्रश्न है? चौटाला के लगातार कमजोर होने के बाद से हुड्डा खुद को जाटों का सबसे बड़ा नेता मानने लगे हैं। सर छोटू राम के बाद देवीलाल इस इलाके में बड़े कद के नेता रहे। यह चुनाव हुड्डा और चौटाला में से किसी एक का कद बढ़ाने जा रहा है।

Monday, October 5, 2009

कोर्ट के साथ पॉलिटिक्स मत करो


सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को उत्तर प्रदेश की मायावती को करारी झाड़ लगाई। सुप्रीम कोर्ट के आ
देश के बावजूद मूर्तियों के निर्माण का काम न रोके जाने के मामले पर अदालत ने नाराजगी जाहिर की। जस्टिस बी. एन. अग्रवाल और जस्टिस आफताब आलम की बेंच ने यूपी सरकार को लताड़ते हुए कहा कि हमारे साथ इस तरह व्यवहार मत कीजिए जैसे आप असेंबली में करते हैं। कोर्ट अपना राजनीतिक विरोधी मत समझिए। यहां आपको कोई पॉइंट नहीं बनाने हैं। बेंच ने सरकारी प्रतिनिधि सतीश चंद्र मिश्रा और हरीश साल्वे से कहा कि सरकार ऐसा व्यवहार कर रही है, जैसे तर्कहीन भीड़ करती है, जिसे कानून की कोई परवाह नहीं होती। कोर्ट ने कहा कि भीड़तंत्र और लोकतंत्र में यही फर्क होता है कि लोकतंत्र संविधान के आधार पर काम करता है। उन्होंने कहा कि आदेश के बावजूद निर्माण का काम जारी रखकर सरकार ने कोई समझदारी का परिचय नहीं दिया है। अब कोर्ट को भी समझ में आ गया कि मायावती की कथनी और करनी में बहुत अंतर है। आखिर ऐसी क्या बात है कि 2600 करोड़ रुपए के भारी भरकम बजट को मूर्तियों के निर्माण पर खर्च कर रही हैं, वो भी तब जब प्रदेश सूखे की चपेट में है। किसान दर-दर की ठोकरें खाते फिर रहें हैं। एक मायने में देखा जाए तो कांशीराम इतने बढ़े राष्ट्रीय नेता भी नहीं थे कि उनके लिए इतना भारी भरकम बजट को उनकी मूर्तियां बनाकर खर्च कर दिया जाए। प्रदेश के विकास की गाड़ी होले-होले भी नहीं बढ़ रही है। किसान आंदोलन कर रहे हैं कि उनकी जमींने प्राधिकरण जबरन छीन रही हैं, उद्योग लगाने के नाम पर, वह निजी बिल्डर्स को बेंच रहीं हैं। नोएडा में तो किसानों पर नंगा नाच हो रहा है। किसानों की कृषि योग्य भूमि को सरकार जबरन हथिया रही है। किसानों के पास जब जमीन ही नही रहेगी तो वह किसान फिर क्या करेंगे। किसान अपनी जमीन को किसी और को बेंचते है और उस पर बाकादा रजिस्टर्ड मकान बनते हैं तो कहा जाता है कि वह अवैध कालोनी है, इसी से सरकार से नाराज होकर अब किसान एक जुट होकर सड़क पर आकर सरकार के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया है। जब मायावती सरकार देश की सबसे बड़ी कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट को धोखा दे सकती है तो फिर किसान किस खेत की मूली है।