Wednesday, March 31, 2010

लिव इन रिलेशनशिप

लिव इन रिलेशनशिप यानी सहजीवन। आपको याद होगा कि अपने देश में इस विषय पर विवाद की शरुआत दक्षिण भारतीय सिने जगत की सुपर स्टार खुशबू के उस बयान से शुरू हुई थी जिसमें उन्होंने विवाह पूर्व सेक्स संबंधों को जायज ठहराया था और इसके फलस्वरूप तमिलनाडु में काफी हो-हल्ला हुआ था। अब कोर्ट ने उनके पक्ष में निर्णय देकर एकबार फिर उस विवाद को हवा दे दी है। पक्ष-विपक्ष में हर तरह के विचार आ रहे हैं। कुछ लोग विवाह नाम की संस्था को सामाजिक ढकोसला मानकर इसकी आवश्यकता पर ही प्रश्न चिह्न लगा रहे है।

प्रागैतिहासिक काल में विवाह नाम की संस्था नहीं थी, स्त्री-पुरुष आपस में सेक्स संबंध बनाने के लिए स्वतंत्र थे। समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए कुछ नियम बनाए गए और विवाह नाम की संस्था ने जन्म लिया। समय के साथ समाज की रीति नीति में काफी परिवर्तन आए है, इंसान की पैसे की हवस और अहम की भावना ने इस संस्था को काफी नुकसान पहुँचाया है, लेकिन मात्र इसके कारण इसकी आवश्यकता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता।

सहजीवन पश्चिमी अवधारणा है, जिसके कारण वहां का सबसे ज्यादा सामाजिक विघटन हुआ है। परंतु धीरे-धीरे अपने देश में भी लोकप्रिय हो रही है। खासकर देश के मेट्रोपोलिटन शहरों में रहने वाले युवाओं के मध्य इस तरह के रिश्ते लोकप्रिय हो रहे है। पहले इस तरह के रिश्ते समाज में एक तरह के टैबू के रूप में देखे जाते थे, पर अब फैशन के तौर पर इन्हें अपनाया जा रहा है। इस तरह के रिश्तों को युवाओं का समाज के रीति-रिवाजों के प्रति एक विद्रोह माना जाय या एक आसान जीवन शैली- जिसमें वे साथी की जिम्मेदारियों से मुक्त एक स्वतंत्र जीवन जीते है। यह एक तरह की ट्रायल एंड एरर जैसी स्थिति होती है जिसमें यदि परिस्थितियां मनोकूल रही हैं तो साथ लंबा रहता है अन्यथा पहले साथी को छोड़ कर आगे बढ़ने में देर नहीं लगती। अगर आप भावुक है और रिश्तों में वचनबद्धता को महत्व देते है तो आपको सहजीवन की अवधारणा से दूर ही रहना चाहिए, यहां वचनबद्धता जैसे नियम लागू नहीं होते। यहां सामाजिक नियमों को दरकिनार कर साथ रहने का रोमांच जरूर होता है, लेकिन इस बात की गारंटी नहीं होती कि परिवार और समाज की अवहेलना कर यह रोमांच कितनी अवधि तक जीवित रहेगा।

यहां पर मैं सुप्रीम कोर्ट के ही एक और निर्णय की ओर भी आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगी, जिसके अनुसार मां-बाप का यह हक है कि उनके बच्चे बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें। ऐसा न करने पर उन्हें कानूनन दंडित किया सकता है। अब यही पर कन्फ्यूजन क्रिएट होता है। सहजीवन भारतीय समाज द्वारा मान्य नहीं है दूसरे ऐसे बच्चे जिनकी अपनी जीवन-धारा ही सुनिश्चित न हो, वे अपने मां-बाप को इसमें कैसे शामिल करेंगे? इस तरह के रिश्ते सिवाय सामाजिक विघटन के हमें और कुछ नहीं दे सकते।

अंत में मैं एक बार फिर अभिनेत्री खुशबू का उल्लेख करना चाहूंगी। खुशबू ने अपने लिव इन रिलेशनशिप से उस समय काफी गहरी चोट खाई थी, जब शिवाजी गणेशन के सुपुत्र प्रभु से अपने रिश्तों को सार्वजनिक करने के बाद भी, प्रभु ने न तो इन रिश्तों को स्वीकारा और न ही अपनी पत्नी से अलग हुए । बाद में खुशबू ने दक्षिण भारतीय फिल्मों के मशहूर एक्टर और डायरेक्टर सी.सुदंर से विवाह करने के लिए मुस्लिम धर्म छोड़कर हिंदू धर्म अपना लिया। शायद उस समय तक उनको इस बात का अहसास पूरी तरह हो गया था कि विवाह ही एक ऐसी संस्था है जो आपको भावात्मक सुरक्षा और जीवन में साथ निभाने की वचनबद्धता देती है। सहजीवन थोड़े समय के लिए आपको रोमांचित तो कर सकता है, लेकिन लंबे साथ की कामना आप इससे नहीं कर सकते।

आज जरूरत है कि विवाह संस्था में आई कुरीतियों को दूर करने की, ताकि पारिवारिक संबंधों में पारस्परिक गरमाहट बढ़े। हमारा चिंतन परिवार नाम की संस्था को दृढ़ता बढ़ाने के लिए होना चाहिए।

Monday, March 22, 2010

सुखदेव को फांसी देना गलत था


अंग्रेजों ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था और वे हर कीमत पर इन तीनों क्रांतिकारियों को ठिकाने लगाना चाहते थे।लाहौर षड्यंत्र [सांडर्स हत्याकांड] में जहां पक्षपातपूर्ण ढंग से मुकदमा चलाया गया, वहीं अंग्रेजों ने सुखदेव के मामले में तो सभी हदें पार कर दीं और उन्हें बिना जुर्म के ही फांसी पर लटका दिया। सांडर्स हत्याकांड में सुखदेव शामिल नहीं थे, लेकिन फिर भी ब्रितानिया हुकूमत ने उन्हें फांसी पर लटका दिया।राजगुरू, सुखदेव और भगत सिंह की लोकप्रियता तथा क्रांतिकारी गतिविधियों से अंग्रेजी शासन इस कदर हिला हुआ था कि वह इन्हें हर कीमत पर फांसी पर लटकाना चाहता था।सांडर्स हत्याकांड में पक्षपातपूर्ण ढंग से मुकदमा चलाया गया और सुखदेव को इस मामले में बिना जुर्म के ही सजा दे दी गई। 15 मई 1907 को पंजाब के लायलपुर [अब पाकिस्तान का फैसलाबाद] में जन्मे सुखदेव भी भगत सिंह की तरह बचपन से ही आजादी का सपना पाले हुए थे। यह दोनों लाहौर नेशनल कॉलेज के छात्र थे। दोनों एक ही सन में लायलपुर में पैदा हुए और एक ही साथ शहीद हो गए।..तुझे जिबह करने की खुशी और मुझे मरने का शौक'तुझे जिबह करने की खुशी और मुझे मरने का शौक, है मेरी भी मर्जी वही जो मेरे सैयाद की है..'इन पंक्तियों का एक-एक लफ्ज उस महान देशभक्त की वतन पर मर मिटने की ख्वाहिश जाहिर करता है जिसने आजादी की राह में हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया।देशभक्ति की यह तहरीर भगत सिंह की उस डायरी का हिस्सा है जो उन्होंने लाहौर जेल में लिखी थी। शहीद-ए-आजम ने आजादी का ख्वाब देखते हुए जेल में जो दिन गुजारे, उन्हें पल-पल अपनी डायरी में दर्ज किया। 404 पृष्ठ की यह मूल डायरी आज भगत सिंह के पौत्र [भतीजे बाबर सिंह संधु के पुत्र] यादविंदर सिंह के पास है जिसे उन्होंने अनमोल धरोहर के रूप में संजोकर रखा है।दिल्ली के नेहरू मेमोरियल म्यूजियम में इस डायरी की प्रति भी उपलब्ध है ्रजबकि राष्ट्रीय संग्रहालय में इसकी माइक्रो फिल्म रखी है।उच्चतम न्यायालय में लगी एक प्रदर्शनी में भी इस डायरी को प्रदर्शित किया जा चुका है।डायरी के पन्ने अब पुराने हो चले हैं, लेकिन इसमें उकेरा गया एक-एक शब्द देशभक्ति की अनुपम मिसाल के साथ ही भगत सिंह के सुलझे हुए विचारों की तस्वीर पेश करता नजर आता है। शहीद-ए-आजम ने यह डायरी अंगे्रजी भाषा में लिखी है, लेकिन बीच-बीच में उन्होंने उर्दू भाषा में वतन परस्ती से ओत-प्रोत पंक्तियां भी लिखी हैं।भगत सिंह का सुलेख इतना सुंदर है कि डायरी देखने वालों की निगाहें ठहर जाती हैं। डायरी उनके समूचे व्यक्तित्व के दर्शन कराती है। इससे पता चलता है कि वह महान क्रांतिकारी होने के साथ ही विहंगम दृष्टा भी थे।बाल मजदूरी हो या जनसंख्या का मामला, शिक्षा नीति हो या फिर सांप्रदायिकता का विषय, देश की कोई भी समस्या डायरी में भगत सिंह की कलम से अछूती नहीं रही है।उनकी सोच कभी विदेशी क्रांतिकारियों पर जाती है तो कभी उनके मन में गणित, विज्ञान, मानव और मशीन की भी बात आती है। डायरी में पेज नंबर 60 पर उन्होंने लेनिन द्वारा परिभाषित साम्राज्यवाद का उल्लेख किया है तो पेज नंबर 61 पर तानाशाही का। इसमें मानव-मशीन की तुलना के साथ ही गणित के सूत्र भी लिखे हैं।इन 404 पन्नों में भगत के मन की भावुकता भी झलकती है जो बटुकेश्वर दत्त को दूसरी जेल में स्थानांतरित किए जाने पर सामने आती है।मित्र से बिछुड़ते समय मन के किसी कोने में शायद यह अहसास था कि अब मुलाकात नहीं होगी, इसलिए निशानी के तौर पर डायरी में भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के ऑटोग्राफ ले लिए थे। बटुकेश्वर ने ऑटोग्राफ के रूप में बीके दत्त के नाम से हस्ताक्षर किए।अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ होने के साथ ही भगत सिंह इतिहास और राजनीति जैसे विषयों में भी पारंगत थे।सभी विषयों की जबर्दस्त जानकारी होने के चलते ही हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी [एचएसआरए] के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने उन्हें अंग्रेजों की नीतियों के विरोध में आठ अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने की इजाजत दी थी।27 सितंबर 1907 को जन्मे भगत सिंह 23 मार्च 1931 को मात्र 23 साल की उम्र में ही देश के लिए फांसी के फंदे पर झूल गए। देशवासियों के दिलों में वह आज भी जिन्दा हैं।

Sunday, March 7, 2010

महिला आरक्षण : संसद में इतिहास रचने की तैयारी

संसद में इतिहास रचने की तैयारी की जा रही है क्योंकि सोमवार को राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक को विचार और पारित किए जाने के लिए पेश किया जाएगा। कांग्रेस, भाजपा तथा वाम दलों ने जहां इसका समर्थन करने का ऐलान किया है वहीं इस विधेयक के विरोधियों के बीच मतभेद खुल कर सामने आ गए हैं।पिछले करीब डेढ़ दशक से आम सहमति का इंतजार कर रहे इस विधेयक की राह राज्यसभा से बन रही है जहां इस पर सोमवार को चर्चा होनी है। इस विधेयक को उच्च सदन में मंजूरी मिलना लगभग तय है क्योंकि कांग्रेस, भाजपा, वामदलों के अलावा अन्य छोटे दल जैसे तेदेपा, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, अकाली दल और नेशनल कांफ्रेंस ने इसका समर्थन करने का ऐलान किया है।राज्यसभा की सदस्य संख्या 245 है लेकिन 12 रिक्तियों की वजह से सदन के सदस्यों की संख्या 233 हैं। इन 12 रिक्तियों में छह नामांकित सदस्यों के लिए रिक्तियां शामिल हैं।बिहार के मुख्यमंत्री और जद [यू] नेता नीतीश कुमार ने अचानक रुख बदल कर विधेयक के पक्ष में आवाज उठाई और विपक्ष को झटका दे दिया है।राज्यसभा में विधेयक का विरोध करने वाले सदस्यों की संख्या 26 से भी कम है क्योंकि जद [यू] में नीतीश कुमार के बयान के बाद गहरे मतभेद नजर आ रहे हैं।महिला आरक्षण के लिए संविधान में संशोधन करने वाले विधेयक को मतदान के दौरान सदन में विशेष बहुमत के लिए 155 मतों की जरूरत होगी। फिलहाल विधेयक के पक्ष में 165 से अधिक सदस्यों का समर्थन नजर आ रहा है।विधि एवं न्याय मंत्री एम वीरप्पा मोइली 'संविधान [108 वां संशोधन] विधेयक' को विचार विमर्श के लिए सदन में पेश करेंगे। महिला आरक्षण विधेयक के नाम से जाना जाने वाला यह विधेयक संयोगवश आठ मार्च को सदन में पेश करने का फैसला किया गया है जिस दिन दुनिया अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाएगी।एक खास बात यह भी है कि आठ मार्च, 2010 को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के सौ साल पूरे हो रहे हैं। इस विधेयक में लोकसभा और राज्यों की विधायिकाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान है।महिला आरक्षण विधेयक के विरोधियों ने इसके खिलाफ 'युद्ध' का ऐलान कर दिया है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव, राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव और जद [यू] प्रमुख शरद यादव ने इस विधेयक के वर्तमान स्वरूप पर अपना विरोध बरकरार रखा है। यह दल इस विधेयक में पिछड़े वर्गो और मुस्लिम समुदाय की महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं।राज्यसभा में कांग्रेस के 71 सदस्य, भाजपा के 45, माकपा के 15, अन्नाद्रमुक के सात, राकांपा के पांच, द्रमुक के चार, बीजद के चार, तेदेपा के दो, तृणमूल कांग्रेस के दो और फारवर्ड ब्लॉक का एक सदस्य है। इन सभी दलों ने विधेयक के लिए अपना समर्थन जताया है। सदन में अकाली दल के तीन सदस्य हैं। अकाली दल ने पहले ही विधेयक के प्रति अपने समर्थन की घोषणा कर दी है।विधेयक पर विचार-विमर्श से पूर्व सरकार ने इसके विरोधियों का समर्थन जुटाने के लिए एक स्वर में इसका समर्थन करने की अपील की तथा इसके विभिन्न पहलुओं पर बातचीत करने का आश्वासन दिया है।संसदीय मामलों के मंत्री पी के बंसल ने बताया कि उन सभी से यह अपेक्षा, उम्मीद और अपील है कि हमें इस महत्वपूर्ण विधेयक का इसके वर्तमान स्वरूप में समर्थन करना चाहिए। कानून के बहुत अच्छे पहलू हैं। अगर किसी के पास कोई और विचार हैं तो उन पर हम बाद में बात कर सकते हैं।कांग्रेस और भाजपा ने अपने-अपने सदस्यों को विधेयक का समर्थन करने के लिए व्हिप जारी किया है। भाकपा नेता डी राजा ने कहा है कि उन्होंने पार्टी सदस्यों से सदन में मौजूद रहने के लिए कहा है। माकपा नेताओं ने भी ऐसा ही किया है।संसदीय मामलों के मंत्री की तरह ही राजा भी मानते हैं कि अगर समर्थन करने वालों की संख्या पर गौर करें तो विधेयक की राह में कोई बाधा नहीं आएगी। राजा ने कहा कि द्रमुक, अन्नाद्रमुक, तेदेपा और बीजद आदि दल भी विधेयक का समर्थन कर रहे हैं।राजा से पूछा गया कि क्या आठ मार्च को संसद में 'रेड लेटर' डे होगा क्योंकि यह विधेयक लोकसभा में महिलाओं और पुरुषों की संख्या ही बदल देगा। इस पर भाकपा नेता ने उम्मीद जताई कि 'यह एक ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण निर्णय होगा और उन्हें कोई समस्या नजर नहीं आती।बहरहाल, विधेयक का विरोध करने वालों की संख्या कम है और इसे मूल्यवृद्धि, ईधन के दामों में वृद्धि जैसे मुद्दों को लेकर कायम विपक्षी एकता को तोड़ने का कांग्रेस का एक प्रयास समझा जा रहा है।राज्यसभा की सदस्य संख्या 245 है लेकिन 12 रिक्तियों की वजह से फिलहाल सदन के सदस्यों की संख्या 233 हैं। इन 12 रिक्तियों में छह नामांकित सदस्यों के लिए रिक्तियां शामिल हैं।विधेयक को संसद में पेश करने के प्रयास पिछले 13 साल से नाकाम होते रहे हैं। इसका विरोध करने वाले दल महिलाओं के लिए लोकसभा और विधायिकाओं में 33 फीसदी आरक्षण के कोटे के अंदर पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षण का कोटा तय करने की मांग कर रहे हैं।वर्ष 1997 में लोकसभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल के हाथों से उनकी ही पार्टी जनता दल के सदस्यों ने विधेयक की प्रतियां छीन कर फाड़ दी थीं। जनता दल तत्कालीन संयुक्त मोर्चा सरकार की अगुवाई कर रहा था।राजग के कार्यकाल में तत्कालीन विधि मंत्री राम जेठमलानी ने जब लोकसभा में यह विधेयक पेश करना चाहा तब भी इसके विरोधियों ने इसकी प्रतियां फाड़ डालीं थीं।यह स्पष्ट हो चुका है कि कांग्रेस और भाजपा में इस विधेयक के लिए श्रेय लेने की होड़ मची है। अब ऐसा लगता है कि यह विधेयक सोमवार को सदन में पेश होने से पहले ही एक पड़ाव पार कर चुका है क्योंकि इसके धुर विरोधी और आलोचक जद [यू] में मतभेद खुल कर सामने आ गए हैं।